Grade-6, Hindi (रोली) जगदीशचंद्र बसु - पाठ
भारत की भूमि पर
अनेक महान वैज्ञानिकों ने जन्म लिया है। जगदीशचंद्र बसु एक ऐसे ही वैज्ञानिक थे।
उन्होंने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अपनी अद्भुत खोज से भारत को विश्व भर में
ख्याति दिलवाई।
जगदीशचंद्र बसु का
जन्म 30 नवंबर 1858 ईस्वी को बंगाल के मैमनसिंह जिले के
विक्रमपुर नामक गाँव में हुआ था। यह स्थान अब बांग्लादेश में है। उनके पिता का नाम
भगवानचंद्र बसु था। वे फ़रीदपुर जिले में एक बड़े सरकारी अफसर थे। उनकी माता
कर्तव्यपरायण एवं धार्मिक महिला थीं। उनके पिता बड़े ही उदारमना व्यक्ति थे।
उन्होंने अकाल पीड़ित लोगों की सहायता के लिए अपनी संपूर्ण संपत्ति बेच दी थी।
जगदीशचंद्र की
प्रारंभिक शिक्षा इनके पिता द्वारा स्थापित एक प्राथमिक पाठशाला में हुई।
भगवानचंद्र बसु यद्यपि एक बड़े अफ़सर थे और उनके मित्रों व अधीनस्थ अधिकारियों के
बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते थे, परंतु उन्होंने बालक जगदीशचंद्र को साधारण बच्चों के साथ प्राथमिक पाठशाला में
पढ़ाया। इसी पाठशाला में पढ़ते हुए जगदीशचंद्र के मन में प्रकृति के प्रति राग
उत्पन्न हुआ। यहीं उन्हें पेड़-पौधों और पशुओं के बारे में अनेक बातों का ज्ञान
हुआ।
जगदीशचंद्र अत्यंत
जिज्ञासु बालक थे। वे विद्यालय में अपने सहपाठियों से जिन-जिन बातों के बारे में
सुनते थे, घर आकर पिता से उनके
बारे में प्रश्न करते थे। उनकी बातों को सुनकर कभी-कभी तो पिता भी चकरा जाते थे।
जगदीशचंद्र बचपन में ही यह बात अच्छी तरह जान गए थे कि पेड़-पौधे भी मनुष्य की तरह
बढ़ते हैं और समय पूरा होने पर मर जाते हैं।
प्रारंभिक शिक्षा
के बाद जगदीशचंद्र को कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल में भेजा गया। यहाँ से
उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की। इसके बाद सन 1880 ई० में उन्होंने सेंट जेवियर कॉलेज से बी०
ए० पास किया।
जगदीशचंद्र
इंग्लैंड से आइ० सी० एस० की परीक्षा पास करके उच्च अधिकारी बनना चाहते लोगों की थे,
परंतु उनके पिता की इच्छा थी कि वे
अंग्रेज़ी सरकार की सेवा के स्थान पर मानवता की सेवा के लिए वैज्ञानिक या डॉक्टर
बनें। अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए जगदीशचंद्र डॉक्टरी की पढ़ाई करने लंदन
गए। वहाँ उन्होंने लंदन मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया, परंतु अस्वस्थ होने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही
छूट गई। उनकी रुचि वनस्पति विज्ञान में थी। इसलिए स्वस्थ होने के बाद उन्होंने
कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया और वहाँ से प्राकृतिक विज्ञान में बी०
एस-सी० की परीक्षा पास की।
बी० एस-सी० करने
के बाद जगदीशचंद्र कोलकाता वापस आ गए और वहाँ के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिक
विज्ञान के प्राध्यापक बन गए। उस समय प्रेसीडेंसी कॉलेज के अधिकांश प्राध्यापक
अंग्रेज़ थे। अंग्रेज़ी सरकार भारतीय प्राध्यापकों के साथ भेदभाव करती थी। भारतीय
प्राध्यापकों को अंग्रेज़ प्राध्यापकों की तुलना में आधा वेतन दिया जाता था।
जगदीशचंद्र बसु के लिए यह भेदभाव असहनीय था। उन्होंने तीन वर्ष तक संघर्ष किया और
वेतन नहीं लिया। अंत में उनकी योग्यता के सामने कॉलेज़ के व्यवस्थापकों को झुकना
पड़ा और पिछले तीन वर्षों का पूरा वेतन देना पड़ा। इस विजय ने उन्हें बहुत
लोकप्रिय बना दिया।
जगदीशचंद्र ने
अपने घर में एक छोटी-सी प्रयोगशाला भी बना रखी थी। अध्यापन कार्य के बाद वे अपना
अधिकांश समय इसी प्रयोगशाला में बिताते थे। यहाँ उन्होंने विद्युत विकिरण पर खोज
आरंभ की और एक ऐसे यंत्र का आविष्कार किया जिसकी सहायता से विद्युत चुंबकीय किरणों
से संबंधित खोज की जा सकती थी। इस आविष्कार ने उन्हें विश्व भर में ख्याति दिलाई।
इस खोज के लिए उन्हें डी० एस-सी० की उपाधि प्रदान की गई और सरकार ने उन्हें
अनुसंधान के लिए पच्चीस हजार रुपये वार्षिक अनुदान भी दिया। इस खोज के लिए उन्हें
देश-विदेश में सम्मानित किया गया। उन्होंने इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जाकर अपने यंत्र का प्रदर्शन किया।
सन 1903 ई० के पश्चात वे अपना अनुसंधान पौधों की
चेतना पर करने लगे। कई वर्षों तक अथक परिश्रम करने के बाद उन्हें सफलता मिली।
उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि पौधों में भी अन्य प्राणियों की तरह जीवनधारा
प्रवाहित होती है। वे शीत से सिकुड़ते हैं। मादक द्रव्य देने पर उन्हें भी मनुष्य
के समान नशा हो जाता है और विष से उनकी मृत्यु हो जाती है। उन्होंने यह भी सिद्ध
कर दिया कि पौधे भी मनुष्य की तरह सोते-जागते हैं, हँसते-रोते हैं। उनकी इस खोज को विश्व भर के
वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया।
जगदीशचंद्र बसु के
मन में इच्छा थी कि वे कोलकाता में एक बड़ा
वैज्ञानिक
शोध-संस्थान स्थापित करें। प्रेसीडेंसी कॉलेज से सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने
इस सपने को साकार किया। सन 1917 ई० में अपने जीवन-भर की संचित राशि 11 लाख रुपयों से कोलकाता में बोस संस्थान स्थापित किया। उसके उद्घाटन के अवसर
पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, "इस संस्थान की स्थापना का उद्देश्य वैज्ञानिक ज्ञान का विस्तार करना है। इसकी
स्थापना करके मैंने भारत की प्राचीन परंपरा का पालन किया है। जिस प्रकार 2500 वर्ष पूर्व नालंदा और तक्षशिला में विदेशी
छात्र ज्ञानार्जन के लिए आते थे, अब इस संस्थान में आएँगे।”
यह संस्थान आज
वैज्ञानिक अनुसंधान का प्रमुख केंद्र है और विश्वविख्यात है। 23 नवंबर 1937 ई० को भारत के इस महान वैज्ञानिक का देहांत हो गया।
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